Sonntag, 6. November 2011

तेरे खुशबू में बसे ख़त

ऑडियो अगर आप सुनना चाहें
स्वरः आभा निवसरकर मोंढे
मिक्सिंगः विकास ज़ुत्शी
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Samstag, 29. Oktober 2011

तेरे खुशबू में बसे ख़त


तुमसे विदा ले कर चली....गुस्से में तुमने मेरे सारे खत नीचे फेंक दिए... पतझड़ के मौसम में रंग बिरंगे मेरे खत पत्तों के साथ दफ्न होते से लग रहे थे...
'प्रियतम...'

शब्द कुछ धुंधले से दिखाई देने लगे... पलकों से आंसूओं को नीचे ढकेला तो दिन साफ हुआ...

'सुनो हमारा कमरा कुछ यूं सजाना... जिस खिड़की से सूरज आता हो वहां एक कांच का लाल फूल लटका देना.. तो सब दिन चमकेगा तो हमारी आंखे पलकों को लाल फूल की झिलमिल जगाएगी... दीवार पर हल्का नीला रंग ही रहने देना... पलंग ना हो तो भी कोई बात नहीं... सपने मुलायम और महके हों बस....'


पत्तों पर चर्र चर्र की आवाज में मेरा सूटकेस अटक गया.. सामने मेरा पहला खत पड़ा था...
'सजना...
तुम्हारा जाना और मेरा रह जाना... कभी कभी मुझे लगता है मेरे साजन, कि पता नहीं तुम्हारी मिट्टी में टिक पाऊंगी या नहीं... तुम ऐसे ही मुझे जलता छोड़ गए हो अपनों से विदा लेने के लिए... मां की नजरें मुझ पर उठती हैं.. मेरी झुक जाती हैं... क्या कहूं उन्हें कि सात फेरे ले, अनछुआ छोड़ गए हो मुझे... मैं रह पाऊंगी न वहां.... कहो न..'

तेज हवा में मेरी शॉल उड़ने को थी.. शॉल के साथ समेटे सारे खत ले कर मैं कोने की ठूंठ पर बैठ गई... और खुद को उन यादों से ऊब देने की कोशिश में कांप रही थी....


'मेरी अंगूठी के नग,
तुम कभी मुझे खत क्यों नहीं लिखते... क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती... डर लगता है मुझे... अपने मां बाप से अलग सात समन्दर पार जाने में... संभाल लोगे न प्राण मुझे... मैं अगर कभी जार जार रोई तो... कभी जिद की जैसे अपने पापा से करती थी.. या रूठ गई जैसे अपने भाई से रूठती थी... संभाल पाओगे न....अगले सप्ताह तुम्हारा जन्मदिन है... क्या लेकर आऊं तुम्हारे लिए... चिट्ठी में लिखना....'

हा हा हा हा चिट्ठी में लिखना.. तुम्हारी चिट्ठी कभी नहीं आई... एक भी नहीं...

मैं हंस रही थी और आने जाने वाले लोग मुझे ठिठक कर देख रहे थे.... किसी ने इमरजेंसी को फोन कर दिया... काश कि मैं सच में ही पागल हो जाती... कम से कम चार दीवारी में बंद जीवन की कॉमेडी को गुनती रहती और हंसती रहती... डॉक्टर नींद की गोली देता मेरा हंसना रोकने के लिए.. फिर किसी दिन.. नींद की गोलियां चोरी कर सो ही जाती... झंझट खत्म...
डॉक्टर मुझे अस्पताल ले गए... सवाल किए... लेकिन पागल साबित नहीं कर सके... साथ के बेड पर एक 15 साल की लड़की थी.. अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था... मुझे देखती जा रही थी... उसने घंटी बजाई.. नर्स आई कहा 'इन आंटी का तकिया पूरा गीला हो गया है... ये आपके जाने के बाद से रो रही हैं...उसके कहने पर मुझे समझ में आया कि मेरे बारे में बात हो रही है...'


जैसे अचानक मेरे दिमाग के किसी हिस्से ने काम करना शुरू कर दिया... मेरी आंखों से बहता पानी रुका और गुस्से में तब्दील हो गया...  
एक एक करके याद आया कबाड़े और बड़े बड़े उपकरणों के बीच लगा हमारा बिस्तर
याद आई दीवारें जिसमें मेरा सिर घुसने जितनी जगह थी.. वहां से लड़ झगड़ एक आध किरण मेरी खुशी के लिए आ जाती....
तुम्हारी चुप्पी जिससे मैं दिन तोड़ती रहती... हजारों नसीहतें जिनसे मैं आंसू पोछती रहती... और तुम्हारा ठंडापन जो मेरे सिंदूर, चूड़ियों में रच बस गया था.. इसी चुप्पी ने मेरे चेहरे पर चिपका दी एक मुस्कान और कोयल वाली आवाज... कि छिपा लूं अपना दर्द
कोई पता न कर सके कि लाड़ली खुश नहीं है.. खुश थी भी सही.. तीन मकान, पूरा परिवार और दो प्यारे बच्चे... मेरे भतीजे... उनमें मन लगाती.. उन्हें इंग्लिश सिखाती...

पूरे बारह साल मैंने तुम्हारे बगैर तुम्हारे कमरे में सो कर गुजारे... कैसा वक्त था जो मैंने विरोध नहीं किया.... न जाने क्यों बस जीती गई... बाहर धड़कती अंदर सुलगती... चुप चाप जलती रही.... यूं ही...
समाज में, राज्यों में लोग मुझे नाम से पहचानने लगे... लेकिन मैं अपने आप में बंद न जाने क्या करती रही इतने साल...
मैं और भी न जाने कितने साल यूं ही रह लेती...
आखिरी खत मेरे हाथ में था... अस्पताल में फिर कोई इमरजेंसी थी... साइरन गूंज रहे थे

हमारे बेडरूम में तुम, और तुम्हारा दोस्त मेरी ओर देख रहे थे.....
वो रात भी मैंने जी तुम्हारे साथ.... तुम्हारी बाहों की जकड़न और तुम्हारा आई लव यू कहना...

मैं बिना कुछ कहे अपनी कविताएं, समेटे, कुछ किताबें उठाए चली आई..
तुम्हारे लिए खतों में मेरे कुछ शब्द छूट गए थे वो भी तुमने फेंक ही दिए...
अच्छा किया.. मेरे शब्दों की धरोहर....
हाथ में नानी की पहली और आखिरी चिट्ठी थी.. उसके अक्षर लिखते समय कांप रहे थे.. और मेरे हाथ पढ़ते समय...
'अपने पति का हमेशा ध्यान रखना, सासू मां के साथ तू तड़ाके से बात मत करना.. अपने संस्कार संभाल कर रखना...'
अस्पताल के बाहर साइरन बजना बंद हो गया था... 
Abha Nivsarkar Mondhe

Mittwoch, 19. Oktober 2011

ठांय से

धड़ाम से बारिश
दन्न से पतझड़
धांय से हवा
और टप टप टप
सर्ररररररररर पत्तों के घुंघरू
शाम है
रात है
धुंधलका है
ठनकती ठंड
सिर चढ़ बोलती है....

रात जमती है
धुंधलके में धुलती है
दिन खिलता नहीं
लिपटा रहता है सुबह में

Freitag, 7. Oktober 2011

खबर

मैं खुश हूं... बस इतनी ही खबर है
खिला है फूल बस इतनी ही खबर है
गहरी रात के बाद उजालों की एक किरण
मद्धम मद्धम मिली है
बस इतनी ही खबर है
... रेगिस्तान का एक कोना हरा हुआ है
बस
इतनी सी खबर है....

मां

मां तुमने दी थी
हिदायतों की एक टोकरी
कहा बिटिया परेशानी में काम आएंगी
संभाल कर रखना...
दुनियादारी से थक मैंने
रख दिया था खुद को भी
तुम्हारी हिदायतों के साथ
मां
इस दिवाली की सफाई में
पुरानी हिदायतों वाली टोकरी फिका गई मां
मेरे शब्द, मैं और तुम खो गए..

नियति

मैंने बचपन को बंद कर दिया है
बस्ते में
इमली का पेड़, गुल्ली डंडा, पकड़म पाटी भी
मैं बन रहा हूं इतिहास,
बन जाऊंगा गणित एक दिन
आंकड़ों से खेलते हुए
आंकड़ों को जोड़ते, घटाते
समय को बांध दफ्तर में
भरूंगा जेबें और
भूल जाऊंगा भाषा...

राउंड द क्लॉक

फूलों की तरह लैब खोल कभी...
खुशबू की जुबां में बोल कभी...!
अभी तुम यही करिश्मा करती हो राउंड दी क्लॉक...

तितली की तरह पर खोल कभी
रेशम की जुबां में बोल कभी
अभी तुम यही करिश्मा करती हो राउंड द क्लॉक

चटक आंखों का कल्लोल कभी
मरमरी बांहों से बोल कभी
अभी तुम यही करिश्मा करती हो राउंड द क्लॉक

प्रेम का रसायन घोल कभी
प्रिज्म के सतरंगे त्रिकोण कभी
अभी तुम यही करिश्मा करती हो राउंड द क्लॉक

Samstag, 10. September 2011

खिड़की (मेरी जर्मन कथा का हिन्दी संस्करण)


Das Fenster
खिड़की
पेट में एक जोरदार किक महसूस हुई. जर्मनी का खास मौसम, ग्रे और भीगा हुआ दिन. एकदम यूरोपीय मौसम. लेकिन मुझमें बढ़ता एक जीवन मेरे मन को हमेशा वसंत से भर देता है. सन्नाटे से भरी बैर्गश्ट्रासे अचानक भारत की आवाजों से भरने लगती हैं...
अरी ओ कमला किधर मर गई... चल नल आ गया है पानी भरने....
भाभीजी आज सब्जी नहीं लेंगी क्या...
कितना मजेदार होता है भाभी और दीदी का संबोधन.. और दुकानदार, सब्जी बेचने वाले इतने शातिर कि उन्हें पता नहीं कैसे पता चलता है किसकी शादी हो गई है... और किसकी नहीं. कुछ साल पहले जो मुझे दीदी बुलाते थे अब भाभी हो गई..
घंटी बजी है... पोस्ट आई. ये जर्मन लोग भी न इतनी एडर्वटाइजमेंटओन भेजते हैं कि बस... इस सुपर मार्केट की, उस रेस्टरॉन्ट की.. .. हर दिन डब्बे में कुछ न कुछ होता है...
खिड़की से बाहर वो पीली चोंच वाली काली चिड़िया दिखाई देती है. इस खिड़की में खड़े हो कर कई बार मैं इन चिड़ियाओं को देखती रहती हूं. पीली चोंच वाली ये काली चिड़िया अभी तिनके जोड़ रही है... शायद अपने बच्चों के लिए एक घोंसला बनाना चाहती है..
ओह फिर ये घूमा...अभी ही इतना हिलता है... बस 20 दिन और..
यह चिड़िया खाना तलाश रही है... यहां वहां हर जगह से कुछ अपनी चोंच में भर रही है. उड़ गई... आएगी फिर थोड़ी देर में

वहां बहुत सारी चिड़ियाएं होती थीं.. रोज आती...नानी उन्हें चावल देती... वो चिड़ियाएं रोज उसी समय आतीं... एक गाय और एक कुत्ता भी आता था. ये दोनों सुबह आठ बजे आते थे नानी उन्हें रात की रोटी देती.. जैसे इन दोनों को पता था कि 7 बजे आए तो पानी भर रही नानी से उन्हें कुछ नहीं मिलेगा...
ओह फिर बारिश होने लगी..वैसे तो मुझे बारिश बहुत पसंद है लेकिन नौ महीने बारिश.. थोड़ी ज्यादा है... ये ग्रे भी एकदम डिप्रेस कर देता है...
बारिश में भीगी यह खिड़की.. मैं और मां कई बार मॉनसून देखा करते... तुम्हारे पास कितनी ऊब, प्यार, निश्चितंता थी मां... लेकिन तुमसे डर बहुत लगता था... शायद इसलिए कि मुझे गलती करना बहुत अच्छा लगता और तुम हमेशा मुझे इससे बचाना चाहतीं....
मां क्या तुम्हें अपनी पहली दोस्त याद है... क्या तुम्हारी दोस्त थीं या तुम्हें अपनी बहनों का ही ख्याल रखना पड़ता,,, क्योंकि तुम सबसे बड़ी थीं या नानी किचन में व्यस्त रहतीं... तुम क्या खेलती थी मां... क्या तुम्हें बचपन में ही सबके लिए खाना बनाना पड़ता था... क्योंकि नानी तुम्हारे सबसे छोटे भाई के साथ व्यस्त होती...
तुम्हारे लिए बहुत सारे सवाल हैं मैं..
मैं आज तक नहीं समझ पाई कि जर्मन लड़कियां अपनी मां से क्यों लड़ती हैं.
आज अटाला फेंकने का दिन है.. पूरी गली में किसी किसी की यादें बिखरी पड़ी हैं. और कई लोग जो नया नहीं खरीद सकते.. वे दूसरों की यादों से अपना घर सजाते हैं.
मुझे हमेशा शर्म आती है सड़क से किसी की चीज उठाने में... ओह सुबह सुबह ही वो आदमी नशे में धुत्त है...
जर्मनी में बेघरबार लोग... यहां की परीकथा का सबसे काला हिस्सा. यूरोप साफ सुथरा है.... यहां सबके पास सब कुछ है.. यह सपना जब टूटा तो बहुत दुख हुआ था. तब मैंने सोचा कि जहां जीवन है वहां दर्द और भूख शायद हमेशा होती है.... और विकासशील या गरीब देश सिर्फ राजनैतिक शब्द है...
ये बहुत देर शांत रहा.. शायद ये मेरी बकबक ध्यान लगा कर सुन रहा है...ओह चलो बारिश तो रुक गई... पेड़ों पर बूंदों के मोती चमक रहे हैं. और मेरी प्यारी चिडिया फिर से आई. पीली चोंच वाली काली चिड़िया... लेकिन ये दूसरी लगती है... क्योंकि यह अपने बच्चों के लिए खाना इकट्ठा कर रही है....

Abha Mondhe

chhip jayen

ये मौसम आया है कितने सालों में..
आजा के खो जाएँ ख़्वाबों-खयालों में...

फिर धूप खिली है सालों में
आजा कि खो जाएं ऊबदार उजालों में

मौसम खिजां का गालों में
आ जा कि खो जाएं नम से पुआलों में

तुम बीन लाओ नीलगिरी की टोपियां
मैं सहेजू उन्हें रुमालों में

सर्दियों से लपेटे मुहब्बत अपनी 
छुप जाएँ प्यार के दुशालों में
आभा ... (पहली दो पंक्तियां दिनेश जोशी जी की हैं...)

Sonntag, 28. August 2011

शुक्रिया

मेरा सपना तोड़ने का शुक्रिया
यह बताने का शुक्रिया
कि दुनिया में मुहब्बत नहीं होती
कोई भला नहीं होता
सब मैं और मुझसे जुड़ा होता है
शुक्रिया ये बताने का
कागज की नाव पानी में नहीं चलती
मेरी पसंदीदा दीवार कुछ नहीं सुनती
चांद में कोई नानी नहीं रहती
पलक के बाल को फूंक मार कर,
टच वुड कह कर
ऑल द बेस्ट कह कर कुछ नहीं होता
यह बताने के लिए शुक्रिया
मेरा सपना तोड़ने का शुक्रिया
आभा एम

ऐसा करती हूं

जब भी गुस्सा आता है
मुस्कुराती हूं
जब भी रोना होता है
गाती हूं
जब कभी सब फेंक देने का मन होता है
कपड़े, इस्त्री कर घड़ी कर के रखती हूं
घर साफ करती हूं
जब सब उधड़ रहा होता है
उन्हीं धागों से
कसीदे काढ़ती हूं
खुद से लेकर सरकार तक
इसी तरह लड़ती हूं

Sonntag, 31. Juli 2011

बहुत बीत गई


बीतते बीतते बहुत बीत गई
तेरे मेरे बीच की बातें
भीगा चांद
कोरी काली रातें

बीतते बीतते बहुत बीत गए
तेरे मेरे बीच के नाते
कागज की नाव
पैसे वाले पेड़ की बातें

बीतते बीतते बहुत बीत गई
नानी दादी वाली रातें
मिट्टी के घर
बाजरे के खेत
खेल खिलौनों वाली शादी
परमल की रोटी
परमल की सब्जी
बीतते बीतते बहुत बीत गईं
तेरे मेरे बीच की बातें
आभा और विकास 

Freitag, 22. Juli 2011

दिल के बाजार से


एेेे भंगार.. लोहा, अखबार, पुराने बर्तन भंगार.... ऐसी कुछ आवाजें कहीं कैच की थीं.. यहां आ कर कभी कबाड़ी बाजार जाने का मन नहीं किया. हालांकि यहां का फ्लोहमार्क्ट यानी फ्ली मार्केट बहुत रोचक होता है. कहें तो हमारे यहां के बाजार जैसा.. सब सड़क पर दुकान लगा कर बैठ जाते हैं. सेकंड हैंड, नई पुरानी चीजें...हर संभव वस्तु...मिलती है. किसी स्टैंड पर पुराने खूबसूरत मार्बल के बर्तन होते हैं... मढ़े हुए वाइन के ग्लास तो कई सौ साल पुराने चरखे से लेकर तो दादी नानी की कढ़ाई की हुई चादर, कपड़े, किताबें सीडी.. सब मिलता है.  मौसम सूरज में खिला नहीं कि शहरों में महीने एक रविवार तय होता है. आज यहां बाजार लगेगा, अगले रविवार को वहां, उसके अगले को कहीं और. इन बाजारों की टोह लेने वाले कहीं भी पहुंच जाते हैं.  अखबार, लोहा यहां नहीं बिकता..वह सब रिसाइकल में जाता है. लेकिन पुराने खूबसूरत कपड़े, टोपियां, नई शालें, एंटीक अलमारियां, एक चरखा, एक संतूर जैसा बवेरियन वाद्य नाम ज़िटर.  उस चरखे के पास पहुंची तो दुकानदार ने बताया कि दूसरे विश्व युद्ध के पहले जर्मनी के कई हिस्सों में खासकर गांवों में महिलाएं चरखे का इस्तेमाल करती थीं. मतलब आज से करीब 60 साल पहले. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. चरखा पूरी तरह से सही सलामत था. महंगा था 160 यूरो बोल रहा था.. कम करता तो भी मेरी जेब के लिए भारी... भारतीय चरखे से बिलकुल अलग... अगर डिस्क्राइब करूं तो बुनकरों वाले स्टाइल का एक पेडल था जिससे दबाने पर पहिया घूमता...हालांकि वह भी नहीं जानता था कि यह चलता कैसे है. इसलिए मुझे कुछ ज्यादा नहीं बता सका. आगे गई तो एक दुकान पर दादी नानी के बनाए हुए टेबल मेट्स, खूबसूरत कढ़ाई. जैसे घर में यादें लबालब हो कर बाहर का रास्ता ढूंढ रहीं हो.. उस दुकान पर एक लड़का सा बैठा था. जिसे कोई चिंता नहीं थी कि उसके स्टैंड की चीजें उड़ रही हैं. वह धूप के कारण परेशान हो लाल हो रखा था. मुझे देख कर उसे बहुत शर्म आई और उसने अपने बैठे रहने की सफाई दी. एक टेबल मेट पर दिल आ गया...था.. कुछ आगे गई फिर सोचा की खरीद ही लेती हूं. तो किसी नानी ने बनाया टेबल मैट अब मेरे घर की यादों में शामिल हो गया है. वहां से घूमते घामते आगे गई तो एक लकड़ी की मूर्तियों के स्टैंड पर एक दीवाना मिला. किसी मध्य पूर्वी देश का था... याजर्मनी का था पता नहीं लेकिन उसे अरबी आती थी.  मुझसे मिला.. जैसे अक्सर जर्मन कहते हैं कि अच्छा... आप भारत से हैं...लेकिन आपकी त्वचा तो हल्के रंग की है और आंखे भी हरी.. ऐसा कैसे...फिर मेरा नाम पूछा..अचानक बोला आहा आभा मतलब लाइट, हेलो..मैंने दिखने नहीं दिया कि मुझे आश्चर्य हुआ है... कुल मिला कर वो पूरी तरह से फ्लर्ट करने में लगा हुआ था और मैं इसे एन्जॉय कर रही थी. 10 मिनट की बातचीत में उसने मुझे हिंदू देवी देवता के नाम बता दिए उनका फंक्शन बता दिया और फिर महात्मा गांधी की तारीफ में लग गया. हहहहहहहह जैसे तैसे मैं उससे छूट कर आगे गई तो बवेरियाई इंस्ट्रूमेंट में अटक गई. उसके पास एक प्यारा सा स्टैंड था.. जिसमें पुरातन कालीन रंग बिरंगे डब्बे रखे हुए थे. लग रहा था जैसे अभी बैकग्राउंड से आवाज आएगी. रीना ओ रीना... चल री... स्कूल का टेम हो रियाए.. चल ओ रीनााााााााा... दोपहर हिंदुस्तान की थी..कुछ 30 35 डिग्री....लोग कई रंग रूप के थे.. भाषाएं कईं लेकिन मैं अपनी गलियों में घूम रही थी....उस दोपहर....
by: Abha Nivsarkar Mondhe

काश ऐसा होता

बचपन से हमें सिखाया जाता है

सजा संवरा बाग होना

जहां हर पौधे, पेड़, फूल की जगह होती है

इधर उधर उगने वाले तिनकों को

माली हफ्ते में एक बार साफ कर देता है

घास को भी बढ़ते ही जाने की अनुमति नहीं होती

हमें सिखाया जाता है बाग होना जिसे

दिखाया जा सके कि यह है हमारे घर का बागीचा

और लोग कहें कि वाह क्या संवारा है

कितना अच्छा होता

कि हमें सिखाया जाता जंगल होना,,

आभा निवसरकर मोंढे