Samstag, 10. September 2011

खिड़की (मेरी जर्मन कथा का हिन्दी संस्करण)


Das Fenster
खिड़की
पेट में एक जोरदार किक महसूस हुई. जर्मनी का खास मौसम, ग्रे और भीगा हुआ दिन. एकदम यूरोपीय मौसम. लेकिन मुझमें बढ़ता एक जीवन मेरे मन को हमेशा वसंत से भर देता है. सन्नाटे से भरी बैर्गश्ट्रासे अचानक भारत की आवाजों से भरने लगती हैं...
अरी ओ कमला किधर मर गई... चल नल आ गया है पानी भरने....
भाभीजी आज सब्जी नहीं लेंगी क्या...
कितना मजेदार होता है भाभी और दीदी का संबोधन.. और दुकानदार, सब्जी बेचने वाले इतने शातिर कि उन्हें पता नहीं कैसे पता चलता है किसकी शादी हो गई है... और किसकी नहीं. कुछ साल पहले जो मुझे दीदी बुलाते थे अब भाभी हो गई..
घंटी बजी है... पोस्ट आई. ये जर्मन लोग भी न इतनी एडर्वटाइजमेंटओन भेजते हैं कि बस... इस सुपर मार्केट की, उस रेस्टरॉन्ट की.. .. हर दिन डब्बे में कुछ न कुछ होता है...
खिड़की से बाहर वो पीली चोंच वाली काली चिड़िया दिखाई देती है. इस खिड़की में खड़े हो कर कई बार मैं इन चिड़ियाओं को देखती रहती हूं. पीली चोंच वाली ये काली चिड़िया अभी तिनके जोड़ रही है... शायद अपने बच्चों के लिए एक घोंसला बनाना चाहती है..
ओह फिर ये घूमा...अभी ही इतना हिलता है... बस 20 दिन और..
यह चिड़िया खाना तलाश रही है... यहां वहां हर जगह से कुछ अपनी चोंच में भर रही है. उड़ गई... आएगी फिर थोड़ी देर में

वहां बहुत सारी चिड़ियाएं होती थीं.. रोज आती...नानी उन्हें चावल देती... वो चिड़ियाएं रोज उसी समय आतीं... एक गाय और एक कुत्ता भी आता था. ये दोनों सुबह आठ बजे आते थे नानी उन्हें रात की रोटी देती.. जैसे इन दोनों को पता था कि 7 बजे आए तो पानी भर रही नानी से उन्हें कुछ नहीं मिलेगा...
ओह फिर बारिश होने लगी..वैसे तो मुझे बारिश बहुत पसंद है लेकिन नौ महीने बारिश.. थोड़ी ज्यादा है... ये ग्रे भी एकदम डिप्रेस कर देता है...
बारिश में भीगी यह खिड़की.. मैं और मां कई बार मॉनसून देखा करते... तुम्हारे पास कितनी ऊब, प्यार, निश्चितंता थी मां... लेकिन तुमसे डर बहुत लगता था... शायद इसलिए कि मुझे गलती करना बहुत अच्छा लगता और तुम हमेशा मुझे इससे बचाना चाहतीं....
मां क्या तुम्हें अपनी पहली दोस्त याद है... क्या तुम्हारी दोस्त थीं या तुम्हें अपनी बहनों का ही ख्याल रखना पड़ता,,, क्योंकि तुम सबसे बड़ी थीं या नानी किचन में व्यस्त रहतीं... तुम क्या खेलती थी मां... क्या तुम्हें बचपन में ही सबके लिए खाना बनाना पड़ता था... क्योंकि नानी तुम्हारे सबसे छोटे भाई के साथ व्यस्त होती...
तुम्हारे लिए बहुत सारे सवाल हैं मैं..
मैं आज तक नहीं समझ पाई कि जर्मन लड़कियां अपनी मां से क्यों लड़ती हैं.
आज अटाला फेंकने का दिन है.. पूरी गली में किसी किसी की यादें बिखरी पड़ी हैं. और कई लोग जो नया नहीं खरीद सकते.. वे दूसरों की यादों से अपना घर सजाते हैं.
मुझे हमेशा शर्म आती है सड़क से किसी की चीज उठाने में... ओह सुबह सुबह ही वो आदमी नशे में धुत्त है...
जर्मनी में बेघरबार लोग... यहां की परीकथा का सबसे काला हिस्सा. यूरोप साफ सुथरा है.... यहां सबके पास सब कुछ है.. यह सपना जब टूटा तो बहुत दुख हुआ था. तब मैंने सोचा कि जहां जीवन है वहां दर्द और भूख शायद हमेशा होती है.... और विकासशील या गरीब देश सिर्फ राजनैतिक शब्द है...
ये बहुत देर शांत रहा.. शायद ये मेरी बकबक ध्यान लगा कर सुन रहा है...ओह चलो बारिश तो रुक गई... पेड़ों पर बूंदों के मोती चमक रहे हैं. और मेरी प्यारी चिडिया फिर से आई. पीली चोंच वाली काली चिड़िया... लेकिन ये दूसरी लगती है... क्योंकि यह अपने बच्चों के लिए खाना इकट्ठा कर रही है....

Abha Mondhe

chhip jayen

ये मौसम आया है कितने सालों में..
आजा के खो जाएँ ख़्वाबों-खयालों में...

फिर धूप खिली है सालों में
आजा कि खो जाएं ऊबदार उजालों में

मौसम खिजां का गालों में
आ जा कि खो जाएं नम से पुआलों में

तुम बीन लाओ नीलगिरी की टोपियां
मैं सहेजू उन्हें रुमालों में

सर्दियों से लपेटे मुहब्बत अपनी 
छुप जाएँ प्यार के दुशालों में
आभा ... (पहली दो पंक्तियां दिनेश जोशी जी की हैं...)