Sonntag, 31. Juli 2011

बहुत बीत गई


बीतते बीतते बहुत बीत गई
तेरे मेरे बीच की बातें
भीगा चांद
कोरी काली रातें

बीतते बीतते बहुत बीत गए
तेरे मेरे बीच के नाते
कागज की नाव
पैसे वाले पेड़ की बातें

बीतते बीतते बहुत बीत गई
नानी दादी वाली रातें
मिट्टी के घर
बाजरे के खेत
खेल खिलौनों वाली शादी
परमल की रोटी
परमल की सब्जी
बीतते बीतते बहुत बीत गईं
तेरे मेरे बीच की बातें
आभा और विकास 

Freitag, 22. Juli 2011

दिल के बाजार से


एेेे भंगार.. लोहा, अखबार, पुराने बर्तन भंगार.... ऐसी कुछ आवाजें कहीं कैच की थीं.. यहां आ कर कभी कबाड़ी बाजार जाने का मन नहीं किया. हालांकि यहां का फ्लोहमार्क्ट यानी फ्ली मार्केट बहुत रोचक होता है. कहें तो हमारे यहां के बाजार जैसा.. सब सड़क पर दुकान लगा कर बैठ जाते हैं. सेकंड हैंड, नई पुरानी चीजें...हर संभव वस्तु...मिलती है. किसी स्टैंड पर पुराने खूबसूरत मार्बल के बर्तन होते हैं... मढ़े हुए वाइन के ग्लास तो कई सौ साल पुराने चरखे से लेकर तो दादी नानी की कढ़ाई की हुई चादर, कपड़े, किताबें सीडी.. सब मिलता है.  मौसम सूरज में खिला नहीं कि शहरों में महीने एक रविवार तय होता है. आज यहां बाजार लगेगा, अगले रविवार को वहां, उसके अगले को कहीं और. इन बाजारों की टोह लेने वाले कहीं भी पहुंच जाते हैं.  अखबार, लोहा यहां नहीं बिकता..वह सब रिसाइकल में जाता है. लेकिन पुराने खूबसूरत कपड़े, टोपियां, नई शालें, एंटीक अलमारियां, एक चरखा, एक संतूर जैसा बवेरियन वाद्य नाम ज़िटर.  उस चरखे के पास पहुंची तो दुकानदार ने बताया कि दूसरे विश्व युद्ध के पहले जर्मनी के कई हिस्सों में खासकर गांवों में महिलाएं चरखे का इस्तेमाल करती थीं. मतलब आज से करीब 60 साल पहले. मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ. चरखा पूरी तरह से सही सलामत था. महंगा था 160 यूरो बोल रहा था.. कम करता तो भी मेरी जेब के लिए भारी... भारतीय चरखे से बिलकुल अलग... अगर डिस्क्राइब करूं तो बुनकरों वाले स्टाइल का एक पेडल था जिससे दबाने पर पहिया घूमता...हालांकि वह भी नहीं जानता था कि यह चलता कैसे है. इसलिए मुझे कुछ ज्यादा नहीं बता सका. आगे गई तो एक दुकान पर दादी नानी के बनाए हुए टेबल मेट्स, खूबसूरत कढ़ाई. जैसे घर में यादें लबालब हो कर बाहर का रास्ता ढूंढ रहीं हो.. उस दुकान पर एक लड़का सा बैठा था. जिसे कोई चिंता नहीं थी कि उसके स्टैंड की चीजें उड़ रही हैं. वह धूप के कारण परेशान हो लाल हो रखा था. मुझे देख कर उसे बहुत शर्म आई और उसने अपने बैठे रहने की सफाई दी. एक टेबल मेट पर दिल आ गया...था.. कुछ आगे गई फिर सोचा की खरीद ही लेती हूं. तो किसी नानी ने बनाया टेबल मैट अब मेरे घर की यादों में शामिल हो गया है. वहां से घूमते घामते आगे गई तो एक लकड़ी की मूर्तियों के स्टैंड पर एक दीवाना मिला. किसी मध्य पूर्वी देश का था... याजर्मनी का था पता नहीं लेकिन उसे अरबी आती थी.  मुझसे मिला.. जैसे अक्सर जर्मन कहते हैं कि अच्छा... आप भारत से हैं...लेकिन आपकी त्वचा तो हल्के रंग की है और आंखे भी हरी.. ऐसा कैसे...फिर मेरा नाम पूछा..अचानक बोला आहा आभा मतलब लाइट, हेलो..मैंने दिखने नहीं दिया कि मुझे आश्चर्य हुआ है... कुल मिला कर वो पूरी तरह से फ्लर्ट करने में लगा हुआ था और मैं इसे एन्जॉय कर रही थी. 10 मिनट की बातचीत में उसने मुझे हिंदू देवी देवता के नाम बता दिए उनका फंक्शन बता दिया और फिर महात्मा गांधी की तारीफ में लग गया. हहहहहहहह जैसे तैसे मैं उससे छूट कर आगे गई तो बवेरियाई इंस्ट्रूमेंट में अटक गई. उसके पास एक प्यारा सा स्टैंड था.. जिसमें पुरातन कालीन रंग बिरंगे डब्बे रखे हुए थे. लग रहा था जैसे अभी बैकग्राउंड से आवाज आएगी. रीना ओ रीना... चल री... स्कूल का टेम हो रियाए.. चल ओ रीनााााााााा... दोपहर हिंदुस्तान की थी..कुछ 30 35 डिग्री....लोग कई रंग रूप के थे.. भाषाएं कईं लेकिन मैं अपनी गलियों में घूम रही थी....उस दोपहर....
by: Abha Nivsarkar Mondhe

काश ऐसा होता

बचपन से हमें सिखाया जाता है

सजा संवरा बाग होना

जहां हर पौधे, पेड़, फूल की जगह होती है

इधर उधर उगने वाले तिनकों को

माली हफ्ते में एक बार साफ कर देता है

घास को भी बढ़ते ही जाने की अनुमति नहीं होती

हमें सिखाया जाता है बाग होना जिसे

दिखाया जा सके कि यह है हमारे घर का बागीचा

और लोग कहें कि वाह क्या संवारा है

कितना अच्छा होता

कि हमें सिखाया जाता जंगल होना,,

आभा निवसरकर मोंढे