Samstag, 29. Oktober 2011

तेरे खुशबू में बसे ख़त


तुमसे विदा ले कर चली....गुस्से में तुमने मेरे सारे खत नीचे फेंक दिए... पतझड़ के मौसम में रंग बिरंगे मेरे खत पत्तों के साथ दफ्न होते से लग रहे थे...
'प्रियतम...'

शब्द कुछ धुंधले से दिखाई देने लगे... पलकों से आंसूओं को नीचे ढकेला तो दिन साफ हुआ...

'सुनो हमारा कमरा कुछ यूं सजाना... जिस खिड़की से सूरज आता हो वहां एक कांच का लाल फूल लटका देना.. तो सब दिन चमकेगा तो हमारी आंखे पलकों को लाल फूल की झिलमिल जगाएगी... दीवार पर हल्का नीला रंग ही रहने देना... पलंग ना हो तो भी कोई बात नहीं... सपने मुलायम और महके हों बस....'


पत्तों पर चर्र चर्र की आवाज में मेरा सूटकेस अटक गया.. सामने मेरा पहला खत पड़ा था...
'सजना...
तुम्हारा जाना और मेरा रह जाना... कभी कभी मुझे लगता है मेरे साजन, कि पता नहीं तुम्हारी मिट्टी में टिक पाऊंगी या नहीं... तुम ऐसे ही मुझे जलता छोड़ गए हो अपनों से विदा लेने के लिए... मां की नजरें मुझ पर उठती हैं.. मेरी झुक जाती हैं... क्या कहूं उन्हें कि सात फेरे ले, अनछुआ छोड़ गए हो मुझे... मैं रह पाऊंगी न वहां.... कहो न..'

तेज हवा में मेरी शॉल उड़ने को थी.. शॉल के साथ समेटे सारे खत ले कर मैं कोने की ठूंठ पर बैठ गई... और खुद को उन यादों से ऊब देने की कोशिश में कांप रही थी....


'मेरी अंगूठी के नग,
तुम कभी मुझे खत क्यों नहीं लिखते... क्या मैं तुम्हें अच्छी नहीं लगती... डर लगता है मुझे... अपने मां बाप से अलग सात समन्दर पार जाने में... संभाल लोगे न प्राण मुझे... मैं अगर कभी जार जार रोई तो... कभी जिद की जैसे अपने पापा से करती थी.. या रूठ गई जैसे अपने भाई से रूठती थी... संभाल पाओगे न....अगले सप्ताह तुम्हारा जन्मदिन है... क्या लेकर आऊं तुम्हारे लिए... चिट्ठी में लिखना....'

हा हा हा हा चिट्ठी में लिखना.. तुम्हारी चिट्ठी कभी नहीं आई... एक भी नहीं...

मैं हंस रही थी और आने जाने वाले लोग मुझे ठिठक कर देख रहे थे.... किसी ने इमरजेंसी को फोन कर दिया... काश कि मैं सच में ही पागल हो जाती... कम से कम चार दीवारी में बंद जीवन की कॉमेडी को गुनती रहती और हंसती रहती... डॉक्टर नींद की गोली देता मेरा हंसना रोकने के लिए.. फिर किसी दिन.. नींद की गोलियां चोरी कर सो ही जाती... झंझट खत्म...
डॉक्टर मुझे अस्पताल ले गए... सवाल किए... लेकिन पागल साबित नहीं कर सके... साथ के बेड पर एक 15 साल की लड़की थी.. अपेंडिक्स का ऑपरेशन हुआ था... मुझे देखती जा रही थी... उसने घंटी बजाई.. नर्स आई कहा 'इन आंटी का तकिया पूरा गीला हो गया है... ये आपके जाने के बाद से रो रही हैं...उसके कहने पर मुझे समझ में आया कि मेरे बारे में बात हो रही है...'


जैसे अचानक मेरे दिमाग के किसी हिस्से ने काम करना शुरू कर दिया... मेरी आंखों से बहता पानी रुका और गुस्से में तब्दील हो गया...  
एक एक करके याद आया कबाड़े और बड़े बड़े उपकरणों के बीच लगा हमारा बिस्तर
याद आई दीवारें जिसमें मेरा सिर घुसने जितनी जगह थी.. वहां से लड़ झगड़ एक आध किरण मेरी खुशी के लिए आ जाती....
तुम्हारी चुप्पी जिससे मैं दिन तोड़ती रहती... हजारों नसीहतें जिनसे मैं आंसू पोछती रहती... और तुम्हारा ठंडापन जो मेरे सिंदूर, चूड़ियों में रच बस गया था.. इसी चुप्पी ने मेरे चेहरे पर चिपका दी एक मुस्कान और कोयल वाली आवाज... कि छिपा लूं अपना दर्द
कोई पता न कर सके कि लाड़ली खुश नहीं है.. खुश थी भी सही.. तीन मकान, पूरा परिवार और दो प्यारे बच्चे... मेरे भतीजे... उनमें मन लगाती.. उन्हें इंग्लिश सिखाती...

पूरे बारह साल मैंने तुम्हारे बगैर तुम्हारे कमरे में सो कर गुजारे... कैसा वक्त था जो मैंने विरोध नहीं किया.... न जाने क्यों बस जीती गई... बाहर धड़कती अंदर सुलगती... चुप चाप जलती रही.... यूं ही...
समाज में, राज्यों में लोग मुझे नाम से पहचानने लगे... लेकिन मैं अपने आप में बंद न जाने क्या करती रही इतने साल...
मैं और भी न जाने कितने साल यूं ही रह लेती...
आखिरी खत मेरे हाथ में था... अस्पताल में फिर कोई इमरजेंसी थी... साइरन गूंज रहे थे

हमारे बेडरूम में तुम, और तुम्हारा दोस्त मेरी ओर देख रहे थे.....
वो रात भी मैंने जी तुम्हारे साथ.... तुम्हारी बाहों की जकड़न और तुम्हारा आई लव यू कहना...

मैं बिना कुछ कहे अपनी कविताएं, समेटे, कुछ किताबें उठाए चली आई..
तुम्हारे लिए खतों में मेरे कुछ शब्द छूट गए थे वो भी तुमने फेंक ही दिए...
अच्छा किया.. मेरे शब्दों की धरोहर....
हाथ में नानी की पहली और आखिरी चिट्ठी थी.. उसके अक्षर लिखते समय कांप रहे थे.. और मेरे हाथ पढ़ते समय...
'अपने पति का हमेशा ध्यान रखना, सासू मां के साथ तू तड़ाके से बात मत करना.. अपने संस्कार संभाल कर रखना...'
अस्पताल के बाहर साइरन बजना बंद हो गया था... 
Abha Nivsarkar Mondhe

Mittwoch, 19. Oktober 2011

ठांय से

धड़ाम से बारिश
दन्न से पतझड़
धांय से हवा
और टप टप टप
सर्ररररररररर पत्तों के घुंघरू
शाम है
रात है
धुंधलका है
ठनकती ठंड
सिर चढ़ बोलती है....

रात जमती है
धुंधलके में धुलती है
दिन खिलता नहीं
लिपटा रहता है सुबह में

Freitag, 7. Oktober 2011

खबर

मैं खुश हूं... बस इतनी ही खबर है
खिला है फूल बस इतनी ही खबर है
गहरी रात के बाद उजालों की एक किरण
मद्धम मद्धम मिली है
बस इतनी ही खबर है
... रेगिस्तान का एक कोना हरा हुआ है
बस
इतनी सी खबर है....

मां

मां तुमने दी थी
हिदायतों की एक टोकरी
कहा बिटिया परेशानी में काम आएंगी
संभाल कर रखना...
दुनियादारी से थक मैंने
रख दिया था खुद को भी
तुम्हारी हिदायतों के साथ
मां
इस दिवाली की सफाई में
पुरानी हिदायतों वाली टोकरी फिका गई मां
मेरे शब्द, मैं और तुम खो गए..

नियति

मैंने बचपन को बंद कर दिया है
बस्ते में
इमली का पेड़, गुल्ली डंडा, पकड़म पाटी भी
मैं बन रहा हूं इतिहास,
बन जाऊंगा गणित एक दिन
आंकड़ों से खेलते हुए
आंकड़ों को जोड़ते, घटाते
समय को बांध दफ्तर में
भरूंगा जेबें और
भूल जाऊंगा भाषा...

राउंड द क्लॉक

फूलों की तरह लैब खोल कभी...
खुशबू की जुबां में बोल कभी...!
अभी तुम यही करिश्मा करती हो राउंड दी क्लॉक...

तितली की तरह पर खोल कभी
रेशम की जुबां में बोल कभी
अभी तुम यही करिश्मा करती हो राउंड द क्लॉक

चटक आंखों का कल्लोल कभी
मरमरी बांहों से बोल कभी
अभी तुम यही करिश्मा करती हो राउंड द क्लॉक

प्रेम का रसायन घोल कभी
प्रिज्म के सतरंगे त्रिकोण कभी
अभी तुम यही करिश्मा करती हो राउंड द क्लॉक