Mittwoch, 5. Februar 2014

ग्रे डे

दर्द से लड़ते हुए
मुझे याद आए बाबा
न जाने कितना दर्द और हताशा
डर अनिश्चितता लेकर जीते रहे होंगे
...
मुझे वो बच्चा याद आया
जो सामने के बेड पर था
बहुत ही मीठे स्वरों में मां कहता
जब दर्द की बिलबिलाहट और सिस्टर की आहट उसे परेशान नहीं करती होती
मां कह कर मुस्कुराता और सलाइन वाला अपना हाथ मां के पास कर देता
जैसे मां सारा दर्द समेट लेगी
...
उस रात जब दर्द ने मुझे भींच दिया था अपने अंदर
मुझे याद आ रहे थे
बॉन की बस में बैठे
दर्दीली मुस्कान देने वाले एक अंकल
अक्सर अनजान लोगों पर चिल्लाने वाले अकेले अंकल
छह महीने से दिखाई नहीं दिए
...
याद आई एक मासूम सी मुस्कान
जो ग्रे भीड़ में न जाने कौन से बच्चे ने क्या सोच कर मुझे दी थी...
एक बार फिर
शरीर का होना महसूस हुआ
दर्द से लड़ते हुए

आभा निवसरकर मोंढे

Dienstag, 16. Oktober 2012

समय के बादलों पर

पतझड़ का वो दिन अलग सा था... सुबह स्पेशल इफेक्ट के साथ हुई थी... ऊपर से कोई जैसे किसी खास हिस्से पर ही सूरज को मेहरबान कर रहा था... हरे पेड़ झीने हो पीले हो चुके थे... आहट थी ठंड आने की...  हर साल ही ऐसा होता है... पतझड़ का संगीत हवा के सुरों पर जब बजता है तो एक उदासी सी तारी हो जाती है... सूरज और हवा से सजे दिन पर के बावजूद माथा सूना सा लगता है..
वैसे तो कीट्स, वर्ड्सवर्थ सब एक एक सजीव होते हैं... पिकासो, मोने न जाने किसके रंग घर पर आ चुके पेड़ पर आ बसते.. हर दिन नया रंग.. भूरा, फिर अलग भूरा, गहरा भूरा.. सुनहरी.. कहीं लाल चटक लाल, बीमार लाल, वाइन का लाल... पीला सुनहरा... आंखों में रंग बस जाते
मौसम बरसता तो काला, ग्रे और खिलता तो सप्तरंगों में .
16 अक्टूबर भी कुछ ऐसा ही आया था.. अनजान था सुबह सुबह लेकिन धूप खिली तो मन भी खिला...हवाओं के साथ दिन भर विचार पेंग लेते रहे...
सरे शाम दिन की बदमाशी से गुलाबी हुआ आसमान देखती रही तो याद आया कि कहीं एक प्यारी सी गुलाबी गुड़िया अपनी जिंदगी से लड़ रही है...
अपनी बेबसी महसूस हुई... आंख नम हुई तो जा पड़ी पतली सी नदी के किनारे पर खड़े रंगीन पेड़ पर... मन भटक गया..
सोचने लगा कि कौन तालिबान कहां के शुरू हुए और कहां आ गए हैं... कौन सी शरियत है... लाल से गुलाबी वाले पत्ते पर नजर पहुंची तो लगा... पंडित कहां बेहतर हैं... पूरी दुनिया में धर्म के ठेकेदार एक से हैं.. मतलब सत्ता से है... एक एक पत्ते पर न जाने कौन कौन से विचार आ रहे थे...
खूबसूरत मौसम में खाप पंचायत, ममता बैनर्जी, हरियाणा के आईएएस अधिकारी घूम रहे थे... फिर याद आए और प्रशासनिक सेवा के साथी... जो ईमानदारी की कीमत चुका रहे हैं... इधर उधर भटकता मन सोच रहा था कि नजर में आने के लिए राष्ट्रीय दामाद या कांग्रेस के जीजा से जुड़े मुद्दों के छत्ते में घुसने की जरूरत नहीं है... बस ईमानदारी और निष्पक्षता से काम करना ही काफी है... लगातार ट्रांसफर के लिए...
अचानक ध्यान गया चटक लाल रंग की बेरियों पर जो सलाखों के पीछे से झांक कर मुस्कुरा रहीं थीं...
विचारों पर भूख हावी हो रही थी...  नवरात्री का पहला दिन....घर का ताला खोल विचारों की चाबी घुमा दी...
आभा निवसरकर    

Samstag, 1. September 2012

ख्यालों के बूंदे


तेजी से गुजरती रेल से
जलते हुए लैंप जैसे दिखाई देते हैं
वैसे ही जिंदगी मेरे सामने से गुजर रही है
तेज, शोर से भरी
अचानक कोई लम्हा
ब्लैक एंड व्हाइट फोटो के निगेटिव जैसा
ठहर जाता है किसी स्टेशन पर कुछ देर
उस लम्हे के साए चेहरों की याद दिलाते हैं
तेजी से गुजरती रेल से बाहर
कोई रंग नहीं बचता
बस तेजी से चलती चौखटों में
हरे, नीले और सुनहरी
काले और रोशनी से चौंधियाए हुए....

Sonntag, 19. Februar 2012

चली गई

उस झील का किनारा
वो शाम का ढलना
तुमसे की सारी बातें
मुलायम रातें
चंपई गजलें
रातरानी सी सुबहें
तमाम खत
सारे ड्राफ्ट में रह गए
धड़कने स्पैम हों
ट्रैश में चली गईं.....

अब बस....

अनजानी, अजनबी लकीरें हैं 
रंगीन एब्स्ट्रैक्ट से रिश्ते में 
कत्थई, सुनहरे से पत्ते हैं, 
पतझड़ हो चुकी दीवारों में
कुछ बोसीदा सी खिड़कियां हैं 
अंधेरा हो रही मीनारों में
अब बस गेहूं की बीनाई है

कट चुके इन खेतों में 

Montag, 6. Februar 2012

बिन तेरे

पेट से लगे घुटने, 
सीने पर भिंचे हाथ 
तकिए में दबा मुंह
बस बाल ही बिखरे हुए

जूते तक सिमटी नजर
कोट में बंद हाथ
आंखों में भिंचा सावन
बस मौसम ही बिखरा हुआ

कमरों के बंद दरवाजे
उनमें टंगी मैं
बाहर आवारा हवा
सूरज, पंछी

मैं और मेरी दुनिया
तुम्हारे बिना

जब तक

जब तक 
मैं बंधी रहती हूं
सात फेरों में
गुनगुनाती रहती हूं पायजेब में
खनकती रहती हूं चूड़ियों में
वे गुणगान गाते हैं
बहू, बेटी की भूमिका में
निपुण होने की गाथाएं लिखते हैं
मैं जानती हूं कि
जब भी खड़ी हो जाऊंगी अपने लिए
बदल जाएंगे शब्द
दफ्न हो जाएंगी गाथाएं

Freitag, 27. Januar 2012

हो ही नहीं पाता

एक चमेली खिलती है मुझमें
जाने किसके कांटों से डर
महक ही नहीं पाती

एक घर बनता है मुझमें
न जाने किन दिवारों से सहम
छत बना नहीं पाता

एक सूरज उगता है मुझमें
चांद की याद में घुलता
दहक ही नहीं पाता

कहीं कुछ छूटा सा

जीवन के ताल में 
अतीत अनागत सी
छूटी में
वर्ज्य स्वर सी
अपनी पहचान ढूंढती हूं
अकेली
एक वर्ज्य से किसी दूसरे राग में
गुनने के लिए
कविता से खो चुके पद्य सी
शब्दों की लय चुनती हूं
द्रुत गति से आगे बढ़ने के लिए 

जिंदा है

तुम रिश्तों की उलझन लाओ
मैं धागन बना कर पतंग उड़ाऊं
तुम जीवन का चक्कर सुनाओ
मैं घिर्री बना कर धागन लपेटूं
तुम कहो बड़ी भारी हैं जिम्मेदारी
मैं नाव बना कर पानियों में ढकेल दूं
तुम कहो अगर संभाल कर रहना
छीटों से मैली हो जाओगी
और मैं कूद पड़ूं छपाक
तुम गाथाएं सुनाओं परिवारों की
मैं बोती रहूं चवन्नी अठन्नी
तुम दिखाओ मुझे कांटे कल कर
मैं गुनती रहूं सपनों के सन
तुम कहो बड़ी हो जाओ
मैं पोसती रहूं मुझमें बच्चे को