Freitag, 27. Januar 2012

हो ही नहीं पाता

एक चमेली खिलती है मुझमें
जाने किसके कांटों से डर
महक ही नहीं पाती

एक घर बनता है मुझमें
न जाने किन दिवारों से सहम
छत बना नहीं पाता

एक सूरज उगता है मुझमें
चांद की याद में घुलता
दहक ही नहीं पाता

कहीं कुछ छूटा सा

जीवन के ताल में 
अतीत अनागत सी
छूटी में
वर्ज्य स्वर सी
अपनी पहचान ढूंढती हूं
अकेली
एक वर्ज्य से किसी दूसरे राग में
गुनने के लिए
कविता से खो चुके पद्य सी
शब्दों की लय चुनती हूं
द्रुत गति से आगे बढ़ने के लिए 

जिंदा है

तुम रिश्तों की उलझन लाओ
मैं धागन बना कर पतंग उड़ाऊं
तुम जीवन का चक्कर सुनाओ
मैं घिर्री बना कर धागन लपेटूं
तुम कहो बड़ी भारी हैं जिम्मेदारी
मैं नाव बना कर पानियों में ढकेल दूं
तुम कहो अगर संभाल कर रहना
छीटों से मैली हो जाओगी
और मैं कूद पड़ूं छपाक
तुम गाथाएं सुनाओं परिवारों की
मैं बोती रहूं चवन्नी अठन्नी
तुम दिखाओ मुझे कांटे कल कर
मैं गुनती रहूं सपनों के सन
तुम कहो बड़ी हो जाओ
मैं पोसती रहूं मुझमें बच्चे को