Sonntag, 19. Februar 2012

चली गई

उस झील का किनारा
वो शाम का ढलना
तुमसे की सारी बातें
मुलायम रातें
चंपई गजलें
रातरानी सी सुबहें
तमाम खत
सारे ड्राफ्ट में रह गए
धड़कने स्पैम हों
ट्रैश में चली गईं.....

अब बस....

अनजानी, अजनबी लकीरें हैं 
रंगीन एब्स्ट्रैक्ट से रिश्ते में 
कत्थई, सुनहरे से पत्ते हैं, 
पतझड़ हो चुकी दीवारों में
कुछ बोसीदा सी खिड़कियां हैं 
अंधेरा हो रही मीनारों में
अब बस गेहूं की बीनाई है

कट चुके इन खेतों में 

Montag, 6. Februar 2012

बिन तेरे

पेट से लगे घुटने, 
सीने पर भिंचे हाथ 
तकिए में दबा मुंह
बस बाल ही बिखरे हुए

जूते तक सिमटी नजर
कोट में बंद हाथ
आंखों में भिंचा सावन
बस मौसम ही बिखरा हुआ

कमरों के बंद दरवाजे
उनमें टंगी मैं
बाहर आवारा हवा
सूरज, पंछी

मैं और मेरी दुनिया
तुम्हारे बिना

जब तक

जब तक 
मैं बंधी रहती हूं
सात फेरों में
गुनगुनाती रहती हूं पायजेब में
खनकती रहती हूं चूड़ियों में
वे गुणगान गाते हैं
बहू, बेटी की भूमिका में
निपुण होने की गाथाएं लिखते हैं
मैं जानती हूं कि
जब भी खड़ी हो जाऊंगी अपने लिए
बदल जाएंगे शब्द
दफ्न हो जाएंगी गाथाएं