Dienstag, 16. Oktober 2012

समय के बादलों पर

पतझड़ का वो दिन अलग सा था... सुबह स्पेशल इफेक्ट के साथ हुई थी... ऊपर से कोई जैसे किसी खास हिस्से पर ही सूरज को मेहरबान कर रहा था... हरे पेड़ झीने हो पीले हो चुके थे... आहट थी ठंड आने की...  हर साल ही ऐसा होता है... पतझड़ का संगीत हवा के सुरों पर जब बजता है तो एक उदासी सी तारी हो जाती है... सूरज और हवा से सजे दिन पर के बावजूद माथा सूना सा लगता है..
वैसे तो कीट्स, वर्ड्सवर्थ सब एक एक सजीव होते हैं... पिकासो, मोने न जाने किसके रंग घर पर आ चुके पेड़ पर आ बसते.. हर दिन नया रंग.. भूरा, फिर अलग भूरा, गहरा भूरा.. सुनहरी.. कहीं लाल चटक लाल, बीमार लाल, वाइन का लाल... पीला सुनहरा... आंखों में रंग बस जाते
मौसम बरसता तो काला, ग्रे और खिलता तो सप्तरंगों में .
16 अक्टूबर भी कुछ ऐसा ही आया था.. अनजान था सुबह सुबह लेकिन धूप खिली तो मन भी खिला...हवाओं के साथ दिन भर विचार पेंग लेते रहे...
सरे शाम दिन की बदमाशी से गुलाबी हुआ आसमान देखती रही तो याद आया कि कहीं एक प्यारी सी गुलाबी गुड़िया अपनी जिंदगी से लड़ रही है...
अपनी बेबसी महसूस हुई... आंख नम हुई तो जा पड़ी पतली सी नदी के किनारे पर खड़े रंगीन पेड़ पर... मन भटक गया..
सोचने लगा कि कौन तालिबान कहां के शुरू हुए और कहां आ गए हैं... कौन सी शरियत है... लाल से गुलाबी वाले पत्ते पर नजर पहुंची तो लगा... पंडित कहां बेहतर हैं... पूरी दुनिया में धर्म के ठेकेदार एक से हैं.. मतलब सत्ता से है... एक एक पत्ते पर न जाने कौन कौन से विचार आ रहे थे...
खूबसूरत मौसम में खाप पंचायत, ममता बैनर्जी, हरियाणा के आईएएस अधिकारी घूम रहे थे... फिर याद आए और प्रशासनिक सेवा के साथी... जो ईमानदारी की कीमत चुका रहे हैं... इधर उधर भटकता मन सोच रहा था कि नजर में आने के लिए राष्ट्रीय दामाद या कांग्रेस के जीजा से जुड़े मुद्दों के छत्ते में घुसने की जरूरत नहीं है... बस ईमानदारी और निष्पक्षता से काम करना ही काफी है... लगातार ट्रांसफर के लिए...
अचानक ध्यान गया चटक लाल रंग की बेरियों पर जो सलाखों के पीछे से झांक कर मुस्कुरा रहीं थीं...
विचारों पर भूख हावी हो रही थी...  नवरात्री का पहला दिन....घर का ताला खोल विचारों की चाबी घुमा दी...
आभा निवसरकर    

Keine Kommentare:

Kommentar veröffentlichen