Mittwoch, 5. Februar 2014

ग्रे डे

दर्द से लड़ते हुए
मुझे याद आए बाबा
न जाने कितना दर्द और हताशा
डर अनिश्चितता लेकर जीते रहे होंगे
...
मुझे वो बच्चा याद आया
जो सामने के बेड पर था
बहुत ही मीठे स्वरों में मां कहता
जब दर्द की बिलबिलाहट और सिस्टर की आहट उसे परेशान नहीं करती होती
मां कह कर मुस्कुराता और सलाइन वाला अपना हाथ मां के पास कर देता
जैसे मां सारा दर्द समेट लेगी
...
उस रात जब दर्द ने मुझे भींच दिया था अपने अंदर
मुझे याद आ रहे थे
बॉन की बस में बैठे
दर्दीली मुस्कान देने वाले एक अंकल
अक्सर अनजान लोगों पर चिल्लाने वाले अकेले अंकल
छह महीने से दिखाई नहीं दिए
...
याद आई एक मासूम सी मुस्कान
जो ग्रे भीड़ में न जाने कौन से बच्चे ने क्या सोच कर मुझे दी थी...
एक बार फिर
शरीर का होना महसूस हुआ
दर्द से लड़ते हुए

आभा निवसरकर मोंढे

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